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म॒रुत्व॑न्तं वृष॒भं वा॑वृधा॒नमक॑वारिं॑ दि॒व्यꣳ शा॒समिन्द्र॑म्। वि॒श्वा॒साह॒मव॑से॒ नूत॑नायो॒ग्रꣳ स॑हो॒दामि॒ह तꣳ हु॑वेम। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑तऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑ते। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि म॒रुतां॒ त्वौज॑से ॥३६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

म॒रुत्व॑न्तम्। वृ॒ष॒भम्। वा॒वृ॒धा॒नम्। वा॒वृ॒धा॒नमिति॑ ववृधा॒नम्। अक॑वारि॒मित्यक॑वऽअरिम्। दि॒व्यम्। शा॒सम्। इन्द्र॑म्। वि॒श्वा॒साह॑म्। वि॒श्व॒सह॒मिति॑ विश्व॒ऽसह॑म्। अव॑से। नूत॑नाय। उ॒ग्रम्। स॒हो॒दामिति॑ सहः॒ऽदाम्। इ॒ह। तम्। हु॒वे॒म॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। म॒रुता॑म् त्वा॒। ओज॑से ॥३६॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:36


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी राजा और प्रजा को क्या करना चाहिये, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कवयः) पूर्वोक्त हम विद्वान् लोग (नूतनाय) नवीन-नवीन (अवसे) रक्षा आदि गुणों के लिये (मरुत्वन्तम्) प्रशंसनीय प्रजायुक्त (वृषभम्) सब से उत्तम (वावृधानम्) अत्यन्त शुभगुण और कर्मों में उन्नति को प्राप्त (अकवारिम्) समस्त धर्मविरोधी दुष्टों का निवारण करनेवाले (दिव्यम्) शुद्ध (विश्वासाहम्) सर्व सहनशील (उग्रम्) प्रचण्ड पराक्रमयुक्त (सहोदाम्) सहायता (शासम्) और सब को शिक्षा देनेवाले (तम्) उस पूर्वोक्त (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्ययुक्त सभापति को निम्नलिखित प्रकार से (हुवेम) स्वीकार करें। हे मुख्य सभासद् राजन् ! तू जिस कारण (उपयामगृहीतः) समस्त बड़े-बड़े और छोटे-छोटे नियमों की सामग्री से सहित (असि) है, इससे (त्वा) तुझ को (मरुत्वते) प्रशंसनीय प्रजायुक्त (इन्द्राय) परमैश्वर्यवान् सभापति होने के लिये स्वीकार करते हैं, (एषः) यह सभा में न्याय करने का काम (ते) तेरा (योनिः) घर के तुल्य है, इससे (त्वा) तुझे (मरुत्वते) उत्तम प्रजा से युक्त (इन्द्राय) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के पालन और वृद्धि होने के लिये स्वीकार करते हैं और जिस कारण तू (उपयामगृहीतः) उक्त सब नियम और उपनियमों से संयुक्त (असि) है, इससे (मरुताम्) प्रजाजनों का (ओजसे) बल बढ़ाने के लिये (त्वा) तुझे ग्रहण करते हैं ॥३६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में पिछले मन्त्र से (कवयः) इस पद की अनुवृत्ति आती है। प्रजाजनों को योग्य है कि जो सर्वोत्तम, समस्त विद्याओं में निपुण, सकल शुभगुणयुक्त विद्वान् शूरवीर हो, उसको सभा के मुख्य काम में स्थापन करें और वह सभा के सब कामों में स्थापित किया हुआ सभापति सत्य, न्याययुक्त धर्म्म कार्य्य से प्रजा के उत्साह की उन्नति करे ॥३६॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः राजप्रजाकृत्यमाह ॥

अन्वय:

(मरुत्वन्तम्) प्रशस्तप्रजायुक्तम् (वृषभम्) सर्वोत्तमम् (वावृधानम्) अतिशयेन शुभगुणकर्मसु वर्द्धमानम् (अकवारिम्) कौति धर्म्ममुपदिशतीति कवो न कवोऽकवोऽधर्म्मात्मा तस्यारिः शत्रुस्तम् (दिव्यम्) शुद्धम् (शासम्) शासितारम् (इन्द्रम्) ऐश्वर्य्यवन्तम् (विश्वासाहम्) विश्वान् सर्वान् सहते तम्। अत्र विश्वपूर्वात् सहधातोः छन्दसि सहः। (अष्टा०३.२.६३) इति ण्विः। अन्येषामपि दृश्यते। (अष्टा०६.३.१३७) इति दीर्घश्च। (अवसे) रक्षणाद्याय (नूतनाय) नवीनाय (उग्रम्) प्रचण्डपराक्रमम् (सहोदाम्) यः सहो बलं ददाति तम् (इह) अस्यां प्रजायाम् (तम्) (हुवेम) स्वीकुर्वीमहि (उपयामगृहीतः) सर्वनियमोपनियमसामग्रीसहितः (असि) (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (त्वा) त्वाम् (मरुत्वते) प्रशंसितप्रजायुक्ताय (एषः) (ते) (योनिः) (इन्द्राय) (त्वा) (मरुत्वते) (उपयामगृहीतः) (असि) (मरुताम्) (त्वा) त्वाम् (ओजसे) बलाय ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.३.३.१४) व्याख्यातः ॥३६॥

पदार्थान्वयभाषाः - कवयो वयं नूतनायावसे मरुत्वन्तं वृषभं वावृधानमकवारिं दिव्यं विश्वासाहमुग्रं सहोदां शासं तं पूर्वोक्तमिन्द्रं हुवेम। हे मुख्यसभासद् ! यतस्त्वमुपयामगृहीतोऽसि तस्मात् त्वा त्वां मरुत्वत इन्द्राय यतस्ते तवैष योनिरस्त्यतस्त्वा मरुत्वत इन्द्राय यतस्त्वमुपयामगृहीतोऽसि तस्मान्मरुतामोजसे बलाय च त्वा त्वां हुवेम ॥३६॥
भावार्थभाषाः - अत्र पूर्वस्मान्मन्त्रात् (कवयः) इत्येतत्पदमनुवर्तते। प्रजाजनानां योग्यतास्ति, यः सर्वोत्तमः सकलगुणयुक्तो विपश्चिच्छूरवीरो भवेत् तं सभाया मुख्यकर्मणि संस्थापयेयुः, स सभायां नियुक्तः सत्यन्यायधर्म-युक्तराज्यकर्मणा प्रजाबलं वर्द्धयेत् ॥३६॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्रातील (कवयः) या पदाची अनुवृत्ती होते. जो सर्वोत्तम व सर्व विद्येमध्ये निपुण आणि सर्व चांगल्या गुणांनी संपन्न, विद्वान, शूरवीर असेल त्याला सभेच्या मुख्यस्थानी नियुक्त करावे व अशा राजाने सत्य व न्याययुक्त धर्मकार्यात प्रजेचा उत्साह वाढवावा.